जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल रामप्रसाद बिस्मिलभवान सिंह राणा
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अमर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल का जीवन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देने वाले वीरों में
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का एक विशिष्ट स्थान है। जीवन के समस्त सुखों को
त्यागकर महानतम उद्देश्य के लिए क्रांति पथ का वरण करनेवाली ऐसी विभूतियां
कम ही जन्म लेती हैं। बिस्मिल सदृश क्रांतिकारी वीरों के बलिदान का भी इस
देश को स्वतन्त्रता दिलाने में विशेष योगदान है।
यद्यपि आज क्रांतिकारियों के बलिदान को हम विस्तृत-सा कर बैठे हैं, तथापि इससे उनके त्याग का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं होता। स्वतंत्र भारत का प्रत्येक व्यक्ति, इस देश की मिट्टी का कण-कण सदा-सदा के लिए पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा।
यद्यपि आज क्रांतिकारियों के बलिदान को हम विस्तृत-सा कर बैठे हैं, तथापि इससे उनके त्याग का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं होता। स्वतंत्र भारत का प्रत्येक व्यक्ति, इस देश की मिट्टी का कण-कण सदा-सदा के लिए पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा।
दो शब्द
स्वतंत्रता संग्राम क्रांतिकारियों का संदर्भ आते ही, जो वीर हमारी स्मृति
में कौंध जाते हैं, उनमें रामप्रसाद बिस्मिल का नाम अग्रणी है। मध्य
प्रदेश ग्वालियर के माता-पिता की संतान के रूप में बिस्मिल मैनपुरी उत्तर
प्रदेश में जन्मे जो संभवत: उनकी ननिहाल था, वह पिता के कठोर अनुशासन में
पले बढ़े और उन्होंने अनेकों विद्वानों और साधुजन की संगति पाई, लेकिन
अंग्रेज सरकार के प्रति विद्रोह की आग जो उनके सीने में एक बार बैठी, वह
दिनों दिन धधकती चली गई। इस आग ने उनके देश प्रेम से ओत-प्रोत कवि को
जगाया और उत्तरोत्तर देश के अतिरिक्त शेष सब प्रसंगों से विरक्त होते चले
गए। यहां तक कि उनके उद्वेग ने उनके प्राणों के प्रति मोह को भी पीछे छोड़
दिया।
यह सब जानते हैं कि उन्होंने हंसते हुए फांसी का फंदा गले में यह कहते हुए डाल लिया कि अंग्रेज साम्राज्य का विनाश उनकी अंतिम इच्छा है, लेकिन उनका पूरा जीवन वृत्तांत भी सब जानें और विस्मृत न हो, यह भी बहुत जरूरी है क्योंकि देश हर एक युग में रामप्रसाद बिस्मिल मांग सकता है।
विश्वास है यह पुस्तक उस आग को जिलाए रखने में भरपूर समर्थ होगी।
यह सब जानते हैं कि उन्होंने हंसते हुए फांसी का फंदा गले में यह कहते हुए डाल लिया कि अंग्रेज साम्राज्य का विनाश उनकी अंतिम इच्छा है, लेकिन उनका पूरा जीवन वृत्तांत भी सब जानें और विस्मृत न हो, यह भी बहुत जरूरी है क्योंकि देश हर एक युग में रामप्रसाद बिस्मिल मांग सकता है।
विश्वास है यह पुस्तक उस आग को जिलाए रखने में भरपूर समर्थ होगी।
लेखक
प्रथम अध्याय
रामप्रसाद बिस्मिल
पारिवारिक पृष्ठभूमि व प्रारम्भिक जीवन
वर्तमान मध्य प्रदेश में अंग्रेजों के शासन में एक देशी रियासत थी,
‘ग्वालियर’। यहीं चम्बल नदी के तट पर दो गांव हैं। इन
दोनों
गांवों के निवासी उस समय बड़े ही उद्दंड स्वभाव के थे। यहां के लोगों पर
राज्य के कानूनों का कोई प्रभाव नहीं था। जमींदार लोग जब चाहें, अपनी
इच्छा से भूमिकर देते थे, जब इच्छा नहीं होती, नहीं देते थे। इस संबंध में
जब कभी कोई राज्य का अधिकारी इन गांवों में पहुंचता, तो जमींदार लोग अपनी
समस्त सम्पत्ति को लेकर अपने पशुओं आदि के साथ चम्बल के बीहड़ों में निकल
जाते। राज्य के कानूनों एवं आदेशों की खुलेआम अवहेलना करना इनके लिए एक
सामान्य बात थी। इनके इस प्रकार के व्यवहार पर भी यदा-कदा तत्त्कालीन शासन
ने इन पर अपनी उदारता दिखाई थी। इसे उदारता कहा जाए अथवा सनक कि इसी
व्यवहार के कारण एक जमींदार को भूमिकर से मुक्ति मिल गई थी। इस घटना का
वर्णन करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘‘एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महोदय को माफी में दे दी गई।’’
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
‘‘.......एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।’’
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्राय: अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गाँव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्राय: पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गाँव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यन्त सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छ: वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक अजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे। तथा अन्त में शाहजहांपुर में उत्तर प्रदेश में पहुँचे और यहीं अहरिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर आकाल पड़ रहा था। अत्याधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता ! अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
‘‘दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसे लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खाती, लड़को को चना या जौ की रोटी देती और इस तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।’’
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अत: दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परन्तु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परन्तु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पाँच-छ: सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें उन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घण्टे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दु:खी हो जाते और अपनी पत्नी से पुन: अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहतीं कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है; किन्तु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दु:ख-सुख सदा लगे रहते हैं। दु:ख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अत: दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डित जी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग भी सम्मान भी देने लगे। दादीजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी बड़े हो गए थे। बढ़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रूपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्राय: कम ही की जाती है।
‘‘एक जमींदार के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें खूब सताया। कई दिन तक बिना खाना पानी बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमिकर देना स्वीकार नहीं किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महोदय को माफी में दे दी गई।’’
इस प्रकार की उद्दण्डता करना यहां के निवासी अपने लिए बड़े गौरव की बात समझते थे। एक बार इन लोगों ने राज्य के ऊंटों की चोरी की और इस पर भी राजकोप से बच गए। इस घटना का वर्णन शहीद बिस्मिल ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
‘‘.......एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से ऊंट वापस कर दिए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।’’
देसी रियासतें आन्तरिक प्रशासन के लिए उसके शासन के अधीन थीं। इस रियासत के निवासी लूट-पाट आदि की घटनाएं प्राय: अपनी रियासत में नहीं करते थे। इस प्रकार की घटनाओं के लिए इन लोगों का कार्यक्षेत्र समीप का अंग्रेजी राज्य होता था। ये लोग अंग्रेजी राज्य के समीपवर्ती क्षेत्र के धनवान लोगों के घरों में डकैतियां डाल रातों-रात चम्बल के बीहड़ों में जा छिपते और इस प्रकार पुलिस इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। ये दोनों गाँव अंग्रेजी राज्य की सीमा से प्राय: पन्द्रह मील की दूरी पर हैं। यहीं एक गाँव में पण्डित श्री नारायण लाल रहते थे। पण्डितजी की पारिवारिक परिस्थिति अत्यन्त सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छ: वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक अजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे। तथा अन्त में शाहजहांपुर में उत्तर प्रदेश में पहुँचे और यहीं अहरिया नामक गांव में रहने लगे। इस समय देश में भयंकर आकाल पड़ रहा था। अत्याधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था। दादीजी एक समय, वह भी केवल आधा पेट भोजन करतीं, तब भी परिवार का निर्वाह न हो पाता ! अत्यधिक निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसका उल्लेख करते हुए पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है-
‘‘दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ। तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसे लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा सा नमक डालकर उसे स्वयं खाती, लड़को को चना या जौ की रोटी देती और इस तरह दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधा पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूं दबाकर रात काटना कठिन हो जाता।’’
भोजन के साथ ही वस्त्र एवं रहने के लिए मकान की समस्या भी विकट थी। अत: दादीजी ने कुछ घरों में कुटाई-पिसाई का काम करने का विचार किया, परन्तु इस अकाल के समय में यह काम मिलना भी सरल नहीं था। बड़ी ही कठिनाई के साथ कुछ घरों में इस तरह का काम मिल पाया, परन्तु इसे भी उन्हीं लोगों के घर में करना पड़ता था, जो लोग काम देते थे। यह काम भी बहुत ही कम मिल पाता था-मुश्किल से दिन में पाँच-छ: सेर जिसका पारिश्रमिक उन दिनों एक पैसा प्रति पसेरी मिलता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण उन्हें उन्हीं एक डेढ़ पैसों के लिए तीन-चार घण्टे काम करना पड़ता था। इसके बाद ही घर आकर बच्चों के भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। फिर भी दादीजी संतोष और धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करतीं। वह बड़ी ही साहसी महिला थीं। पण्डित नारायण लाल कभी-कभी पत्नी एवं बच्चों के कष्टों को देखकर दु:खी हो जाते और अपनी पत्नी से पुन: अपने मूल निवास स्थान ग्वालियर चल पड़ने को कहते, किन्तु दादी बड़ी स्वाभिमानी महिला थीं। ऐसे अवसरों पर वे अपने पति का साहस बढ़ाती और कहतीं कि जिन लोगों के कारण घर छोड़ना पड़ा, फिर उन्हीं की शरण में जाना एक स्वाभिमानी व्यक्ति को शोभा नहीं देता। स्वाभिमान की रक्षा करते हुए प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा है; किन्तु स्वाभिमान का परित्याग मृत्यु से भी बढ़कर है। दु:ख-सुख सदा लगे रहते हैं। दु:ख के बाद सुख भी प्राप्त होता है। ये दिन भी सदा नहीं रहेंगे। अत: दादीजी फिर कभी लौटकर ग्वालियर राज्य नहीं गईं।
धीरे-धीरे चार-पांच वर्ष बीत गए। पण्डित नारायण लाल का कुछ स्थानीय लोगों से परिचय भी बढ़ गया। अकाल भी बीत गया। पण्डित जी के परिवार पर लोगों का विश्वास एवं स्नेह भी बढ़ गया। ब्राह्मण होने के कारण लोग भी सम्मान भी देने लगे। दादीजी को कभी-कभी कुछ लोग अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगे। पहले की तुलना में काम भी अधिक मिलने लगा। कभी कुछ दान दक्षिणा भी मिल जाती। इस प्रकार धीरे-धीरे कठिनाइयां कुछ कम होने लगीं।
पण्डित नारायण लाल भी ब्राह्मणवृत्ति करने लगे। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। धीरे-धीरे बच्चे भी बड़े हो गए थे। बढ़ा पुत्र पाठशाला में पढ़ने जाने लगा। पण्डितजी के कठिन परिश्रम से अब उनका वेतन भी बढ़कर सात रूपए प्रतिमाह हो गया था। परिवार की स्थिति को सुधारने में दादीजी के परिश्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्राय: कम ही की जाती है।
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